रविवार, 29 सितंबर 2013

"मैंने घर के आँगन में बोया था एक बीज"

मैंने घर के आँगन में बोया था एक बीज,
रोज मैं उसे सींचता,
कुछ समय-बाद उसमें अंकुर फूट पढ़ा,
तब मुझे अत्यंत प्रश्नता हुई,
मैं उसकी और देखभाल करने लगा,
समय बीतते-बीतते वह अंकुर से पेड़ बनने लगा,
उसकी शाखायें निकलकर खूब फैलने लगी,
मैं करने लगा इंतजार,
कब उसमें फूल खिलेंगे?
मैं उन्हें निहारा करूँगा?
मगर उसमें फूलों की जगह कांटे उभर आये,
जो कि हर समय मुझे भेद जाते,
मुझे उन काँटों का भेदना भी अच्छा लगने लगा,
क्योंकि वो पेड़ मैंने अपने हाथों से बोया था|
अब ये चुभन सहन नहीं होती मुझसे,
अब मुझे इन काँटों से मुक्ति चाहिए!
अब ये चुभन सहन नहीं होती मुझसे|
******(C) भार्गव चन्दोला, अप्रकाशित, 1997 में रचित*****

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